दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
मेहराब-ए-दुआ में सर-निगूँ रहते हैं
आ जाती है जिस वक़्त घर उन के दौलत
फिर क्या है ये सरगर्म-ए-जुनूँ रहते हैं
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मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो
ये बात अजीब निगाह में आई है
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
न अपना बाक़ी ये तन रहेगा न तन में ताब ओ तवाँ रहेगी
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश