मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
हर तरह करो दौलत-ए-दुनिया की तलाश
हैं क़ौम में मुद्दई विलायत के बहुत
अफ़्सोस नहीं विलायती अक़्ल-ए-मआश
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दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
है इश्क़ तो फिर असर भी होगा
ग़ैरत में सियासत में शुजाअ'त में हो मर्द
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो