पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
मुमकिन ही नहीं इस से किसी तरह मफ़र
हर-चंद इस सफ़र में सख़्ती है बहुत
सह ले कि मुसीबत से तक़ाज़ा-ए-सफ़र
Mir Taqi Mir
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मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
है इश्क़ तो फिर असर भी होगा
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
ये बात अजीब निगाह में आई है
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते