देखूँ हूँ तुझ को दूर से बैठा हज़ार कोस
ऐनक न चाहिए न यहाँ दूरबीं मुझे
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चमन में दहर के हर गुल है कान की सूरत
शहर में फिरता है वो मय-ख़्वार मस्त
बस नहीं चलता जो उस दम उन के ऊपर गर पड़े
सच अगर पूछो तो ना-पैदा है यक-रू आश्ना
गुलशन-ए-दहर में सौ रंग हैं 'हातिम' उस के
जिस ने आदम के तईं जाँ बख़्शा
साफ़ दिल है तो आ कुदूरत छोड़
दौरा है जब से बज़्म में तेरी शराब का
गदा को गर क़नाअत हो तो फाटा चीथड़ा बस है
रखता हूँ मैं हक़ पर नज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो
तिरी मेहराब में अबरू की ये ख़ाल
मुझे तावीज़ लिख दो ख़ून-ए-आहू से कि ऐ स्यानो