हादसे शहर का दस्तूर बने जाते हैं
अब यहाँ साया-ए-दीवार न ढूँढें कोई
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तवील हिज्र है इक मुख़्तसर विसाल के बा'द
कच्चे रंगों का मौसम
डाका
भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
हुआ न ख़त्म अज़ाबों का सिलसिला अब तक
आज आँखों में कोई रात गए आएगा
नदी का आब दिया है तो कुछ बहाव भी दे
तुझ को सोचों तो तिरे जिस्म की ख़ुशबू आए
अजीब मंज़र है बारिशों का मकान पानी में बह रहा है
कुछ दिनों के लिए मंज़र से अगर हट जाओ
फूल खिला दे शाख़ों पर पेड़ों को फल दे मालिक
संग थे पिघले तो पानी हो गए