मिरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर
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मुझे भूल जा
आदमी न इतना भी दूर हो ज़माने से
मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे
इक इक क़दम फ़रेब-ए-तमन्ना से बच के चल
ला रहा है मय कोई शीशे में भर के सामने
बदलती जा रही है दिल की दुनिया
क़स्र वीरान हुआ जाता है
आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझे
हाए इस मजबूरी-ए-ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
ज़लज़ला