एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'