उस से यही कहता हूँ वाजिब एहतिराम-ए-इश्क़ है
अंदर से ये ख़्वाहिश है वो जैसा कहे वैसा करूँ
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ये क़दम क़दम कशाकश दिल बे-क़रार क्या है
जमाल-ए-नस्तरनी रंग-ओ-बू-ए-यासमनी
हम नींद की चादर में लिपटे हुए चलते हैं
जी में है इक दिन झूम कर उस शोख़ को सज्दा करूँ
आख़िर वो इज़्तिराब के दिन भी गुज़र गए
उजड़ के घर से सर-ए-राह आ के बैठे हैं
ऐ सबा निकहत-ए-गेसू-ए-मुअंबर लाना
बहुत दिनों में हम उन से जो हम-कलाम हुए
लाख नादाँ हैं मगर इतनी सज़ा भी न मिले
खोए हुए सहरा तक ऐ बाद-ए-सबा जाना
क़ज़ा जो दे तो इलाही ज़रा बदल के मुझे