उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो
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बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में