अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
दिल को बदले हुए हालात पे रोना आया
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कितने ही फूल चुन लिए मैं ने
आज फिर उन से मुलाक़ात पे रोना आया
मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
आप पर जब से तबीअत आई
शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा
याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या
ऐ दिल तिरी आहों में इतना तो असर आए
बुरी तक़दीर के रोने से हासिल
दिल है बीमार क्या करे कोई