जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
मालिक इन फूलों की उम्र दराज़ करे
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क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
थोड़ी सी बारिश होती है
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
तुग़्यानी से डर जाता हूँ
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
आईने के आख़िरी इज़हार में
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा