किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
बशारतें अभी सामान में पड़ी हुई थीं
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यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
थोड़ी सी बारिश होती है
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ