मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
वो अपने ख़्वाब में तश्कील कर रहा है मुझे
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सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
आईने के आख़िरी इज़हार में
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे