मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
फ़ासला तय नई दीवार उठाने से हुआ
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किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
थोड़ी सी बारिश होती है
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ