क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे
शहर-ए-दिल्ली में तो ऐसे वाक़िए होते रहे
Mir Taqi Mir
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पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
मुसालहत
हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी
कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
पुराने लोग दरियाओं में नेकी डाल आते थे
वो जिस को दूर से देखा था अजनबी की तरह
फिर दिल को रोज़ ओ शब की वही ईद चाहिए
मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना
सम्तों का ज़वाल