सोने से जागने का तअल्लुक़ न था कोई
सड़कों पे अपने ख़्वाब लिए भागते रहे
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परछाइयाँ पकड़ने वाले
अक़्द-नामे
तुझे भुलाने की कोशिश में फिर रहे थे कि हम
दिल डूबने लगा है तवानाई चाहिए
एक मंज़र में लिपटे बदन के सिवा
हमें भी आज ही करना था इंतिज़ार उस का
ये बात याद रखेंगे तलाशने वाले
दूर तक फैला समुंदर मुझ पे साहिल हो गया
कोई ग़ुल हुआ था न शोर-ए-ख़िज़ाँ
जो हर क़दम पे मिरे साथ साथ रहता था
जिस की न कोई रात हो ऐसी सहर मिले
आँखों के सामने कोई मंज़र नया न था