यूँ 'आबरू' बनावे दिल में हज़ार बातें
जब रू-ब-रू हो तेरे गुफ़्तार भूल जावे
Faiz Ahmad Faiz
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तुम्हारी देख कर ये ख़ुश-ख़िरामी आब-रफ़्तारी
साथ मेरे तेरे जो दुख था सो प्यारे ऐश था
तुझ हुस्न के बाग़ में सिरीजन
बोसे में होंट उल्टा आशिक़ का काट खाया
निगह तेरी का इक ज़ख़्मी न तन्हा दिल हमारा है
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
निपट ये माजरा यारो कड़ा है
उस वक़्त जान प्यारे हम पावते हैं जी सा
है हमन का शाम कोई ले जा
हुआ है हिन्द के सब्ज़ों का आशिक़
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
दिलदार की गली में मुकर्रर गए हैं हम