कमान-ए-ख़ाना-ए-अफ़्लाक के मुक़ाबिल भी
मैं उस से और वो फिर कज-कुलाह मुझ से हुआ
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अगर हम गीत न गाते
रौशन वो दिल पे मेरे दिल-आज़ार से हुआ
सितम की तेग़ पे ये दस्त-ए-बे-नियाम रक्खा
अगर तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँच रही है
मोहब्बत
क्या आग सब से अच्छी ख़रीदार है
तुम ख़ूब-सूरत दाएरों में रहती हो
कमान-ए-शाख़ से गुल किस हदफ़ को जाते हैं
एक लड़की
यही बहुत थे मुझे नान ओ आब ओ शम्अ ओ गुल
गिरा तो गिर के सर-ए-ख़ाक-ए-इब्तिज़ाल आया
मैं दिल को उस की तग़ाफ़ुल-सरा से ले आया