सुख की ख़ातिर दुख मत बेच
जाल के पीछे जाल न डाल
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एक तअस्सुर
हमेशा दिल हवस-ए-इंतिक़ाम पर रक्खा
बे-ज़ारी की आख़िरी साअत
मगर वो दिया ही नहीं मान कर के
गए थे वहाँ जी में क्या ठान कर के
मशग़ूल हैं सफ़ाई-ओ-तौसी-ए-दिल में हम
सबा देख इक दिन इधर आन कर के
ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
कोई जल में ख़ुश है कोई जाल में
तुलू-ए-साअत-ए-शब-ख़ूँ है और मेरा दिल
चाक करते हैं गरेबाँ इस फ़रावानी से हम
उस की आँखों के वस्फ़ क्या लिक्खूँ