ना-शनासी का हमेशा ग़म रहा
सफ़र है ज़ेहन का तो कोई रहनुमा ले जा
सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है
कोई पत्थर का निशाँ रख के जुदा हों हम तुम
एक आवाज़ ने तोड़ी है ख़मोशी मेरी
जुदा किया तो बहुत ही हँसी-ख़ुशी उस ने
बिखर के छूट न जाऊँ तिरी गिरफ़्त से मैं
बादलों के बीच था मैं बे-सर-ओ-सामाँ न था
है ग़म-ए-हिज्र न अब ज़ौक़-ए-तलब कुछ भी नहीं
उस का ग़म अपनी तलब छीन के ले जाएगा