बदल के देख चुकी है रेआया साहिब-ए-तख़्त
जो सर क़लम नहीं करता ज़बान खींचता है
Habib Jalib
Allama Iqbal
Anwar Masood
Rahat Indori
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Gulzar
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ख़तों को खोलती दीमक का शुक्रिया वर्ना
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गए
धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं
किसी बदन की सयाहत निढाल करती है
ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे
वो दस्तियाब हमें इस लिए नहीं होता
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
ये ए'तिमाद भी मेरा दिया हुआ है तुम्हें
मैं जानता हूँ मुझे मुझ से माँगने वाले
तेज़ आँधी में ये भी काफ़ी है