बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
वगर्ना अपना तो शहर भर में मकान ताले से जाना जाए
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भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है
गीले बालों को सँभाल और निकल जंगल से
महसूस कर लिया था भँवर की थकान को
उस लब की ख़ामुशी के सबब टूटता हूँ मैं
दलील उस के दरीचे की पेश की मैं ने
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
ये लोग जा के कटी बोगियों में बैठ गए
इज़ाला हो गया ताख़ीर से निकलने का
उस से हम पूछ थोड़ी सकते हैं
ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे
कुछ नहीं दे रहा सुझाई हमें