क़त्ल और मुझ से सख़्त-जाँ का क़त्ल
तेग़ देखो ज़रा कमर देखो
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दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
मेरे रोने पे ये हँसी कैसी
मुझ को का'बा में भी हमेशा शैख़
आतिश-ए-ख़ामोश
देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
मिरे दहन में अगर आप की ज़बाँ होती
ये तेरी आरज़ू में बढ़ी वुसअत-ए-नज़र
हमेशा तिनके ही चुनते गुज़र गई अपनी
सामने आइना था मस्ती थी
दुनिया का ख़ून दौर-ए-मोहब्बत में है सफ़ेद