वही सितारा-नुमा इक चराग़ है 'आज़र'
मिरा ख़याल था निकलेगा ताक़ से कुछ और
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अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता
सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
सात दरियाओं का पानी है मिरे कूज़े में
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था