हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई था अगर
फिर ये हंगामा मुलाक़ात से पहले क्या था
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दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
बे-सबब जम'अ तो करता नहीं तीर ओ तरकश
उठा रखी है किसी ने कमान सूरज की
चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
किसे ख़याल था ऐसी भी साअ'तें होंगी
कभी क़तार से बाहर कभी क़तार के बीच
रह रहे हैं मकीं शबों के
क़ाफ़िला उतरा सहरा में और पेश वही मंज़र आए
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
गली से अपनी उठाता है वो बहाने से
इतना तिलिस्म याद के चक़माक़ में रहा
चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ