सफ़र में कोई किसी के लिए ठहरता नहीं
न मुड़ के देखा कभी साहिलों को दरिया ने
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तुम्हारे साथ ही उस को भी डूब जाना है
हवास लूट लिए शोरिश-ए-तमन्ना ने
कुछ अब के बहारों का भी अंदाज़ नया है
वो रोज़-ओ-शब भी नहीं है वो रंग-ओ-बू भी नहीं
इज़हार-ए-अक़ीदत में कहाँ तक निकल आए
यही है दौर-ए-ग़म-ए-आशिक़ी तो क्या होगा
मैं शो'ला-ए-इज़हार हूँ कोताह हूँ क़द तक
ज़िंदगी में ऐसी कुछ तुग़्यानीयाँ आती रहीं
हज़ार तर्क-ए-वफ़ा का ख़याल हो लेकिन
हमें सलीक़ा न आया जहाँ में जीने का
चाँदनी ने रात का मौसम जवाँ जैसे किया
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही