लाज़िम है कि फ़िक्र-ए-रुख़-ए-दिलबर छोड़ूँ
वाजिब है यही अब कि मुक़र्रर छोड़ूँ
नासेह ने किया मुझ को भी आख़िर मजनूँ
हूँ क़ैद में जिस की उसे क्यूँ कर छोड़ूँ
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किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल
नाला करता हूँ लोग सुनते हैं
कल तक थी ख़ुल्द ख़ाना-ज़ाद-ए-देहली
ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं
दिल से मुझे आने की है आन की आहट
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
मस्जिद में न जा वाँ नहीं होने का निबाह
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
क्या आ के जहाँ में कर गए हम
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे