आँखों से ख़्वाब दिल से तमन्ना तमाम-शुद
तुम क्या गए कि शौक़-ए-नज़ारा तमाम-शुद
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हमेशा इक मसाफ़त घूमती रहती है पाँव में
हम परियों के चाहने वाले ख़्वाब में देखें परियाँ
मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है
अधूरे मौसमों का ना-तमाम क़िस्सा
मोहब्बतें तो फ़क़त इंतिहाएँ माँगती हैं
सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो
शाएरी पूरा मर्द और पूरी औरत माँगती है
क्या शख़्स था उड़ाता रहा उम्र भर मुझे
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
किसी की याद में आँखों को लाल क्या करना
मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे भी आमादा हूँ लेकिन
घर लौटते हैं जब भी कोई यार गँवा कर