मैं फिर इक ख़त तिरे आँगन गिराना चाहता हूँ
मुझे फिर से तिरा रंग-ए-बुरीदा देखना है
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तीसरी आँख
घर लौटते हैं जब भी कोई यार गँवा कर
तुझ से बिछड़ के सम्त-ए-सफ़र भूलने लगे
मोहब्बतें तो फ़क़त इंतिहाएँ माँगती हैं
ये कार-ए-इश्क़ तो बच्चों का खेल ठहरा है
जुदाई की रुतों में सूरतें धुँदलाने लगती हैं
कल शब क़सम ख़ुदा की बहुत डर लगा हमें
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
शाम-ए-विदाअ थी मगर उस रंग-बाज़ ने
सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से
किस को थी ख़बर इस में तड़ख़ जाएगा दिल भी
धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना