दुनिया का न खा फ़रेब वीराँ है ये
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
ख़ाक नमनाक और ताबिंदा नुजूम
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
तेज़ी नहीं मिनजुमला-ए-औसाफ़-ए-कमाल
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
अहमद का मक़ाम है मक़ाम-ए-महमूद
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे