क्या कहते हैं इस में मुफ़्तियान-ए-इस्लाम
दाल की फ़रियाद
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
इक आलम-ए-ख़्वाब ख़ल्क़ पर तारी है
दुनिया का न खा फ़रेब वीराँ है ये
ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
दुनिया को न तू क़िबला-ए-हाजात समझ
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
इंसाँ को चाहिए न हिम्मत हारे
आया हूँ मैं जानिब-ए-अदम हस्ती से
करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर