गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
ख़ाक नमनाक और ताबिंदा नुजूम
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
शैतान करता है कब किसी को गुमराह
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
साक़ी ओ शराब ओ जाम ओ पैमाना क्या
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
नक़्क़ाश से मुमकिन है कि हो नक़्श ख़िलाफ़