दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
रात जब भीग के लहराती है
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
तितली कोई बे-तरह भटक कर