इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
अपने आईना-ए-तमन्ना में
इक ज़रा रसमसा के सोते में