मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
साल-हा-साल और इक लम्हा
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
शर्म दहशत झिझक परेशानी
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
उस के और अपने दरमियान में अब
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम