सर में तकमील का था इक सौदा
साल-हा-साल और इक लम्हा
उस के और अपने दरमियान में अब
पास रह कर जुदाई की तुझ से
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल