चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
सर में तकमील का था इक सौदा
उस के और अपने दरमियान में अब
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
पास रह कर जुदाई की तुझ से
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त