वो कसी दिन न आ सके पर उसे
साल-हा-साल और इक लम्हा
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
पास रह कर जुदाई की तुझ से
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
उस के और अपने दरमियान में अब
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए