पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
साल-हा-साल और इक लम्हा
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
पास रह कर जुदाई की तुझ से
शर्म दहशत झिझक परेशानी
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है