चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
शर्म दहशत झिझक परेशानी
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
सर में तकमील का था इक सौदा
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं