इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
पास रह कर जुदाई की तुझ से
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
शर्म दहशत झिझक परेशानी
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
सर में तकमील का था इक सौदा