शर्म दहशत झिझक परेशानी
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
उस के और अपने दरमियान में अब
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं