हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
सर में तकमील का था इक सौदा
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
शर्म दहशत झिझक परेशानी
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
पास रह कर जुदाई की तुझ से
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था