जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
साल-हा-साल और इक लम्हा
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
पास रह कर जुदाई की तुझ से
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
उस के और अपने दरमियान में अब