गुलशन में फिरूँ कि सैर-ए-सहरा देखूँ
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
असहाब ने पूछा जो नबी को देखा
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
दुश्मन को भी दे ख़ुदा न औलाद का दाग़
हर ग़ुंचे से शाख़-ए-गुल है क्यूँ नज़्र-ब-कफ़
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
बिस्त-ओ-यकुम-ए-माह-ए-मोहर्रम है आज