फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से