बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
न समझा गया अब्र क्या देख कर
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में