यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में