यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन