हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए
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ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा